भारत जैसे विकासशील देश में “खाद्य मुद्रास्फीति” एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक चुनौती बन चुकी है। जब आम आदमी की थाली से सब्जियाँ, दालें, अनाज और तेल जैसे जरूरी सामान धीरे-धीरे गायब होने लगते हैं, तब यह केवल एक आर्थिक मुद्दा नहीं, बल्कि जनजीवन से जुड़ी हुई गहरी चिंता बन जाती है। इस ब्लॉग में हम समझेंगे कि खाद्य मुद्रास्फीति क्या है, इसके प्रमुख कारण क्या हैं, कैसे यह आम लोगों के जीवन को प्रभावित करती है, और इससे निपटने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं।
खाद्य मुद्रास्फीति का अर्थ है—खाद्य पदार्थों की कीमतों में समय के साथ लगातार बढ़ोत्तरी। जब गेहूं, चावल, दाल, सब्जियां, दूध, अंडे, मांस और तेल जैसी वस्तुएं आम लोगों की पहुंच से दूर होने लगती हैं, तो यह स्थिति मुद्रास्फीति कहलाती है।
विशेषज्ञों के अनुसार, खाद्य मुद्रास्फीति उस समय और गंभीर हो जाती है जब कीमतों में वृद्धि लगातार होती है और आमदनी उसकी तुलना में नहीं बढ़ती।
भारत में फरवरी 2022 में खाद्य मुद्रास्फीति 5.85% तक पहुंच गई थी, जो नवंबर 2020 के बाद का सबसे उच्चतम स्तर था। खासतौर पर तेल, वसा, मांस, मछली और सब्जियों की कीमतों में तेज़ वृद्धि दर्ज की गई:
यह आंकड़े दर्शाते हैं कि मुद्रास्फीति केवल अस्थायी नहीं, बल्कि एक गहराता हुआ संकट है।
वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल, खाद्य तेल और अनाज की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी भारत जैसे आयात-निर्भर देश को प्रभावित करती है।
यूक्रेन को यूरोप का ‘ब्रेडबास्केट’ कहा जाता है। यह देश सूरजमुखी तेल, गेहूं, मक्का, जौ और मांस के प्रमुख उत्पादकों में से एक है। युद्ध की वजह से आपूर्ति बाधित हुई, जिससे वैश्विक कीमतों में उछाल आया।
भारत में कृषि उत्पादन मानसून पर बहुत हद तक निर्भर करता है। कभी सूखा, कभी बाढ़—इन हालातों में फसलें नष्ट हो जाती हैं, जिससे खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति घट जाती है और कीमतें बढ़ जाती हैं।
सरकार द्वारा किसानों को अधिक MSP देना अच्छी नीति है, लेकिन इससे बाज़ार में कीमतें ऊपर जाती हैं और अंतिम उपभोक्ता को महंगे दाम चुकाने पड़ते हैं।
ईंधन की कीमतें बढ़ने से ट्रांसपोर्ट महंगा होता है, जिसका असर खाद्य उत्पादों की खुदरा कीमतों पर पड़ता है।
खाद्य मुद्रास्फीति का सबसे बड़ा असर मध्यम वर्ग और गरीब तबके पर होता है। जब आय वही रहती है लेकिन ज़रूरी चीज़ों के दाम बढ़ते हैं, तो व्यक्ति को अपनी बचत खर्च करनी पड़ती है या फिर अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना पड़ता है।
भारत की कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले 20 वर्षों में औसतन 3% रही है, जो बहुत कम है। अन्य पड़ोसी देशों जैसे कि चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तुलना में भारत में प्रति एकड़ अनाज की उपज भी कम है। जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि योग्य भूमि में भी कमी आ रही है।
जैसे-जैसे लोगों की आय बढ़ती है, उनकी खाद्य प्राथमिकताएं बदलती हैं। अब लोग सिर्फ दाल-चावल तक सीमित नहीं रहना चाहते, बल्कि वे डेयरी, मांस, फ्रूट्स और पैक्ड फूड की ओर बढ़ते हैं। इससे हाई-वैल्यू फूड की मांग बढ़ती है, लेकिन उसकी आपूर्ति उतनी तेजी से नहीं बढ़ पाती।
सरकार के लिए यह तय करना मुश्किल होता है कि वह:
इसके बीच संतुलन बनाना नीति निर्माताओं के लिए एक बड़ी चुनौती है।
सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों को आधुनिक कोल्ड स्टोरेज, ट्रांसपोर्टेशन नेटवर्क और वेयरहाउसिंग पर निवेश करना होगा।
नई तकनीकों और हाई-यील्ड बीजों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। किसानों को आधुनिक खेती सिखाने की आवश्यकता है।
सीधी बिक्री प्लेटफॉर्म और किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) को प्रोत्साहन देना चाहिए जिससे उपभोक्ता और किसान दोनों को लाभ मिले।
सरकार को समय-समय पर आयात-निर्यात नीति में बदलाव करके आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए।
गरीबों के लिए सब्सिडी, मुफ्त राशन योजना और मिड-डे मील जैसी योजनाएं जारी रहनी चाहिए जिससे खाद्य असुरक्षा से निपटा जा सके।
खाद्य मुद्रास्फीति का संकट केवल आंकड़ों का खेल नहीं, यह करोड़ों लोगों के जीवन से जुड़ा सवाल है। इसके पीछे जहां वैश्विक स्तर की चुनौतियां हैं, वहीं घरेलू नीति में सुधार की भी गुंजाइश है। एक समग्र दृष्टिकोण, जिसमें किसानों की आमदनी, उपभोक्ता की पहुंच और उत्पादन की स्थिरता सभी शामिल हों, से ही इस समस्या से निपटा जा सकता है।
आख़िरकार, भोजन केवल जीवन का हिस्सा नहीं, बल्कि सम्मान और गरिमा का प्रतीक भी है। अगर हम यह सुनिश्चित कर सकें कि हर व्यक्ति की थाली में पर्याप्त और पोषणयुक्त भोजन हो, तभी हमारा विकास वास्तव में समावेशी कहा जाएगा।
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